राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती
परिवर्तन
(६)
मोटर पर चम्पा बेहोश हो गई थी । होश आने पर उसने अपने आपको एक बड़े भारी मकान में क़ैद पाया। मकान की सजावट देखकर किसी बहुत बड़े आदमी का घर मालूम होता था। कमरे में चारों तरफ़ चार बड़े-बड़े शीशे लगे थे । दरवाज़ों और खिड़कियों पर सुन्दर रेशमी परदे लटक रहे थे । दीवालों पर बहुत-सी अश्लील और साथ ही सुन्दर तसवीरें लगी हुई थीं । एक तरह एक बढ़िया ड्रेसिंग टेबिल रखा था, जिस पर श्रृंगार का सब सामान सजाया हुआ था, बड़ी-बड़ी अलमारियों में क़ीमती रेशमी कपड़े चुने हुए रखे थे । जमीन पर दरी थी; दरी पर एक बहुत बढ़िया कालीन बिछा था । क़ालीन पर दो-तीन मसनद क़रीने से रखे थे। आस-पास चार-छै आराम कुर्सियां और कोच पड़े थे। चम्पा मसनद पर गिर पड़ी और खूब रोई। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला और एक बुढ़िया खाने की सामग्री लिए हुए अन्दर आई । भोजन रखते हुए वह बोली, यह खाना है खालो; अब रो पीटकर क्या करोगी ? यह तो यहाँ का रोज़ ही की कारबार है।
चम्पा ने भोजन को हाथ भी न लगाया । वह रोती ही रही और रोते-रोते कब उसे नींद आ गई, वह नहीं जानती। सवेरे जब उसकी नींद खुली, तब दिन चढ़ आया था । वहाँ पर एक स्त्री पहले ही से उसकी कंघी चोटी करने के लिए उपस्थित थी। उसने चम्पा के सिर में कंघी करनी चाही। किन्तु एक झटके में चम्पा ने उसे दूर कर दिया। वह स्त्री बड़बड़ाती हुई चली गई।
इस प्रकार भूखी-प्यासी चम्पा ने एक दिन और दो रातें बिता दीं। तीसरे दिन सवेरे उठकर चम्पा शून्य दृष्टि से खिड़की से बाहर सड़क की ओर देख रही थी । किसी के पैरों की आहट सुनकर ज्यों ही उसने पीछे की ओर मुड़कर देखा, वह सहसा चिल्ला उठी "दादा" !!
ठाकुर खेतसिंह के मुँह से निकल गया "बेटी" !!
+++
उस दिन से फिर उस गाँव की किस स्त्री पर कोई कुदृष्टि न डाल सका।